Friday, September 20, 2024

1965 में जब नहीं हुआ था छत्तीसगढ़ का गठन तब ही बन गई थी पहली छत्तीसगढ़ी मूवी “कही देबे संदेस”

0- फ़िल्म निर्माता ने जातिगत भेदभाव को पहली बार छत्तीसगढ़ी सिनेमा के पर्दे पर उतारा।

0- कही देबे संदेस में अंतर्जातीय विवाह को दर्शाना पड़ा था भारी, एक समुदाय ने थियेटर में आग लगाने तक की दे डाली थी धमकी।

न्यूज़ डेस्क। 1960 के दशक में भारतीय फिल्मों में अमूलचूल परिवर्तन देखने को मिले थे। 1963 में बनी हिट क्षेत्रीय फ़िल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ ने स्थानीय भाषाओं/बोलियों के निर्देशकों के लिए प्रेरणा का काम किया। 

इसी दौर में मध्य-प्रदेश ( वर्तमान छत्तीसगढ़) के “मनु नायक” ने जातिगत भेदभाव पर फ़िल्म बनानी शुरू कर दी। “कही देबे संदेस” तब आई जब हिन्दी फ़िल्म जगत अपने स्वर्णिम युग में था। इस फ़िल्म में अनुसूचित जाति के एक लड़के और ब्राह्मण समुदाय की लड़की के प्रेम प्रसंग को प्रदर्शित किया गया था। 

इसके थियेटर में आने से पहले ही ब्राह्मण समाज ने फ़िल्म पर प्रतिबंध लगाने और मनोहर टॉकीज़ (यहीं फ़िल्म रिलीज़ होनी थी) में आग लगाने की धमकी तक दे डाली थी। बावजूद इसके 16 अप्रैल 1965 फ़िल्म रिलीज़ हुई। इसे विभिन्न थिएटर्स और मेलोन में दिखाया गया। अपने दौर की यह एक क्लासिक पिक्चर साबित हुई। 

रायपुर के पास पलारी गाँव में हुई थी शूटिंग

यह फिल्म छत्तीसगढ़ के एक गांव पर आधारित है, जहां उच्च जातियों और सतनामी समुदाय के बीच नियमित संघर्ष होता है। फिल्म की शूटिंग 1964 में रायपुर से 70 किलोमीटर दूर एक गांव पलारी में नवंबर और दिसंबर के बीच 22 दिनों तक की गई थी। फ़िल्म के बचे हुए कुछ हिस्सों की शूटिंग मुंबई में की गई और वहीं फिल्म का संपादन भी किया गया था। 7 अप्रैल 1965 को इसे सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिला. रायपुर के सिनेमा हॉल मनोहर टॉकीज को प्रीमियर के लिए प्री-बुक किया गया था।

मोहम्मद रफ़ी ने गाया था गाना

“कही देबे संदेस” के लिए 60 के दशक के सिंगिंग सेंशेशन मोहम्मद रफ़ी ने “तोर पैरी के झनर-झनर” गाना गया था। बताया जाता है की इसके लिए उन्हें उस समय लगभग 20 हज़ार रुपए दिये गए थे। मोहम्मद रफ़ी द्वारा इस फ़िल्म का गीत गाए जाने के बाद से हिन्दी सिनेमा जगत में इस मूवी की खूब चर्चा हुई थी। 

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