0 विशेष पिछड़ी जनजाति में शामिल हैं पहाड़ी कोरवा, जंगलों व पहाड़ों पर रहना पसंद करता है पहाड़ी कोरवा परिवार, रहन-सहन अन्य लोगों से बिल्कुल अलग
अंबिकापुर. सरकार द्वारा पहाड़ी कोरवा को विशेष पिछड़ी जनजाति में शामिल किया गया है। ये दुनिया की चकाचौंध से इतर होते हैं। ये जंगल व पहाड़ों पर रहना पसंद करते हैं। इन्हें बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं होता। पहाड़ी कोरवाओं की एक खासियत यह है कि उन्हें जितने की जरूरत होती है, उतनी ही कमाई करते हैं। यदि विशेष परिस्थितियों में कर्ज लेने की जरूरत पड़ी तो वे 500 रुपए से लेकर 1000 तक का ही लेते हैं। परिवार के किसी सदस्य की यदि घर पर मृत्यु हो जाती है तो वे उस घर का ही त्याग कर देते हैं।
पहाड़ी कोरवा की जीवन शैली, रहन-सहन व काम करने का तरीका भी अन्य लोगों से अलग होता है। पहाड़ी कोरवा उतना ही कमाते हैं जितने में परिवार का गुजारा हो सके। ये सप्ताह में सिर्फ 2-3 दिन ही काम करते हैं, बाकी दिन आराम करते हैं।
विशेष परिस्थितियों में यदि उन्हें पैसे की जरूरत पड़ गई तो किसी से 500 या 1000 रुपए उधार ले लेते हैं। इससे ज्यादा ये कर्ज लेना भी पसंद नहीं करते। यदि ये कर्ज नहीं चुका पाते हैं तो कर्ज देने वाले के घर हरवाही या मजदूरी कर चुका देते हैं।
जानिए, कैसी होती है इनकी जीवन शैली
पहाड़ी कोरवाओं की जीवन शैली अलग होती है। ये जंगल और पहाड़ों पर रहना पसंद करते हैं। जंगली जानवरों का शिकार व कंद, मूल इनका मुख्य आहार होता है।
पेड़ों के पत्ते, लकडिय़ों व घास-फुस से अपना घर बनाते हैं। परिवार के पुरुष सदस्य कपड़े के नाम पर शरीर पर एक गमछा, लुंगी व टी-शर्ट पहनते हैं, जबकि महिलाएं साड़ी या धोती पहनती हैं। इस जनजाति का खान-पान भी अलग है। ये लोग मिट्टी के बर्तन में खाना बनाते हैं। चोंगी (पत्तों से बना पात्र) में खाना खाते हैं।
ये आम लोगों से दूरी बनाकर रखना पसंद करते हैं। पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोग मनोरंजन और तीज त्यौहार में कर्मा नृत्य करते हैं। इनका कर्मा, सोदे कर्मा नृत्य कहलाता है। एक डंडा गाडक़र उसमें झाड़ू लगाते हैं, फिर धनुष-बाण टांगकर अलग ही वाद्ययंत्र से ये नृत्य करते हैं।
मौत के बाद घर का कर देते हैं त्याग
2010 में पहाड़ी कोरवा जनजाति पर शोध में अनोखी परंपरा सामने आई थी। एक पहाड़ी कोरवा के घर पर अगर किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो परिवार वह घर छोड़ देता है। हर मृत्यु के बाद ये लोग नया घर बनाकर रहते हैं। इस परंपरा का आज भी क़रीब 30 प्रतिशत लोग पालन कर रहे हैं।